Friday 26 August 2016

मेहनत और मोटी रक़म बनाती है महारथी

मेहनत और मोटी रक़म बनाती है महारथी


रियो में खेलों का महाकुंभ यानी ओलंपिक ख़त्म हो चुका है. अमरीका 121 पदकों के साथ पदक तालिका में सबसे आगे रहा. जबकि भारत की झोली में सिर्फ़ दो पदक आए.
सवाल है कि इतनी बड़ी कामयाबी और नाकामी के बीच ये फासला क्यों है?
खिलाड़ी किसी भी देश का हो, जीतना उसकी मंज़िल होती है. इसलिए वो मेहनत करने में कोई कसर नहीं छोड़ता. फिर क्या वजह है कि जब अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों से उसका मुक़ाबला होता है तो वो पिछड़ जाता है?
पीछे रह जाने के पीछे कई कारण हैं.
किसी भी खेल में महारथी होने के लिए कड़ी मेहनत की दरकार होती है. हफ़्ते में कम से कम तीस घंटे पसीना बहाना पड़ता है. कसरत करनी होती है. अपने खेल में निखार पैदा करने लिए अच्छे कोच का साथ होना भी ज़रूरी है. अच्छी एकेडमी चाहिए.
सबसे ज़रूरी बात ये है कि इन सबके लिए मोटी रक़म भी चाहिए. अब ये रक़म आए कहां से.
जब हम सेरेना विलियम्स जैसे स्टार खिलाड़ियों के साथ उनके स्टाफ़ और कोच का लाव-लश्कर देखते हैं, तो लगता है कि सब खिलाड़ियों के साथ शायद ऐसा ही होता है. लेकिन ये हमारी ग़लतफ़हमी है.
किसी खिलाड़ी को एक सहयोगी स्टाफ़, अच्छे कोच जैसी तमाम सुविधाएं स्टार बनने के बाद ही उसे मिल पाती हैं. लेकिन स्टार बनने तक के सफ़र में ख़र्च खिलाड़ियों को ही उठाना पड़ता है.
हम अक्सर रोना रोते हैं कि हिंदुस्तान में सरकार खिलाड़ियों को कोई मदद नहीं देती. उनके लिए सुविधाएं नहीं जुटाती.
तो ये हाल सिर्फ़ हिंदुस्तान का नहीं. बहुत से अमीर मुल्क़ों में भी खिलाड़ी को अपने लिए ख़ुद ही संसाधन जुटाने पड़ते हैं.
अमरीका के पड़ोसी देश कनाडा की ही मिसाल लीजिए. वहां के खिलाड़ियों का सालाना ख़र्च, उन्हें मिलने वाली सरकारी मदद से ग्यारह हज़ार डॉलर या क़रीब सात लाख रुपए ज़्यादा है. ऐसे में इन ख़र्चो को पूरा करने के लिए खिलाड़ियों को प्रैक्टिस के अलावा दूसरे काम भी करने पड़ते हैं, जिससे वो अपनी ट्रेनिंग के लिए पैसे जुटा सकें.
कनाडा की पेंटाथलान खिलाड़ी हैं डोना वकालिस. डोना, ओलंपिक मेडल जीतने के लिए कड़ी मशक़्क़त करती हैं. वो ट्रेनिंग से वक़्त निकालकर पार्ट टाइम टीचिंग भी करती हैं. ताकि अपनी ट्रेनिंग का ख़र्च उठा सकें.
ऑस्ट्रेलिया के तैराक मैथ्यू एबट, 2012 में लंदन ओलंपिक में भाग नहीं ले सके थे. क्वालीफ़ाइंग राउंड में वो महज़ 0.02 सेकेंड से चूक गए. पदक जीतने का सपना तो टूटा ही, साथ ही सरकार की तरफ़ से मिलने वाली मदद के दरवाज़े भी बंद हो गए.
लेकिन मैथ्यू ने हार नहीं मानी. रियो ओलंपिक 2016 में फिर से किस्मत आज़माने के लिए उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के कॉमनवैल्थ बैंक का रुख़ किया. वहां उन्होंने चार साल तक हफ़्ते में दो दिन काम किया. तब जाकर उन्हें रियो ओलंपिक में जाने का टिकट ले पाए.
खेल का सुपरपावर अमरीका जैसे देशों में भी खिलाड़ियों को सरकार से ज़्यादा मदद नहीं मिलती. बल्कि अलग-अलग खेलों के खिलाड़ियों को बढ़ावा देने के लिए कुछ एजेंसियां हैं, जो खिलाड़ियों को फंड उपलब्ध कराती हैं.
मिसाल के तौर पर यूएस एथलेटिक ट्रस्ट को लीजिए. यह ट्रस्ट खिलाड़ियों को पैसे से मदद करती है. रियो जा रहे खिलाड़ियों को इस ट्रस्ट ने एक लाख पचास हज़ार डॉलर दान में दिए. जबकि इन खिलाड़ियों को उपकरण खरीदने, कोच और एकेडमी की फीस देने, अलग अलग देशों में जाकर खेलने वगैरह का खर्च बारह हज़ार से सवा लाख डॉलर तक बैठता है.
इस खर्च का दस फीसद ही अमरीकी सरकार देती है. बाक़ी का ख़र्च खुद खिलाड़ियों को उठाना पड़ता है.

यूएस एथलेटिक ट्रस्ट के संस्थापक और पूर्व ओलंपिक खिलाड़ी ऑजी वोल्फ़ का कहना है कि खिलाड़ियों की हालत पतली है. बहुत से ओलंपिक खिलाड़ी बमुश्किल अपना गुज़ारा कर पाते हैं. इसके लिए कभी उन्हें उधार लेना पड़ता है तो कभी दानदाताओं के रहमो-करम पर रहना पड़ता है.
हालांकि खेलों के इतिहासकार मार्क डायरेसन इन बातों से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते. उनका कहना है कि ओलंपिक या किसी भी बड़े खेल आयोजन में जब खिलाड़ी पहली बार अपनी क़िस्मत आज़माता है, तो उसे ये मुश्किलें आती हैं. लेकिन जब वो अपना हुनर साबित कर देता है, तो उसे बहुत से स्पॉन्सर मिल जाते हैं.
1980 के दशक में ऐसा होता था कि खिलाड़ियों को पहले अपने हुनर का लोहा मनवाना होता था. कामयाबी मिलने के बाद ही उन्हें स्पॉन्सर मिलते थे. लेकिन अब हालात ऐसे नहीं हैं. आज बहुत से खिलाड़ी करोड़पति बन गए हैं.
खेलों को बढ़ावा देने के लिए सारी दुनिया को ये समझना ज़रूरी है कि खेल भी करियर के लिए एक अच्छा विकल्प है.
जिस तरह बेहतर तालीम के लिए सरकार की तरफ़ से मदद दी जाती है, तेज़ छात्रों को स्कॉलरशिप दी जाती है. उसी तरह खेलों और खिलाड़ियों को भी आर्थिक मदद दी जानी चाहिए.
आज किसी भी खेल में महारत हासिल करने के लिए मोटी रक़म खर्च करनी पड़ती है. इसका जुगाड़ करना किसी भी खिलाड़ी के लिए अकेले मुमकिन नहीं. अगर हमारे देश की सरकारें इस बात को नहीं समझेंगी तो हमारा ओलंपिक में यही हाल रहना है.
अमरीका जैसे देशों की हालत दूसरी है. वहां सरकार पैसे ख़र्च न भी करे तो निजी स्पॉन्सर मिल जाते हैं. खिलाड़ियों की मदद के लिए तमाम ट्रस्ट हैं.
भारत जैसे देशों में ऐसी सुविधाओं की कमी है. हमारे फ़िसड्डी होने की ये बड़ी वजह है.




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