Sunday 31 July 2016

फ्री गेम से कैसे पैसे बनाती हैं कंपनियां


फ्री गेम से कैसे पैसे बनाती हैं कंपनियां

पोकेमॉन गेम तो फ्री है. लेकिन जब इतने लोग उसे फ्री डाउनलोड करते हैं तो कंपनी पैसे कैसे बनाती है. करीब दो-तीन साल पहले एंग्री बर्ड्स या टेम्पल रन की सफलता को भी देखकर यही सवाल आपके मन में आया होगा.
कई कंपनियों ने अपने वीडियो गेम फ्री डाउनलोड करने के इस तरीके में महारत हासिल तो कर ली है. लेकिन उसके बाद पैसा बनाना आसान नहीं है. लेकिन पोकेमॉन गो ने ये कमाल कर दिखाया है, जो हर वीडियो गेम करना चाहेगा. अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में जो भी गेम रिलीज़ किए जाते हैं. उन्हें अब स्मार्टफोन पर पैसे खर्च करने वाले लोगों तक पहुंचने का बहुत बढ़िया तरीका ढूंढ लिया है.
जब भी पोकेमॉन गो, टेम्पल रन, सबवे सर्फर या एंग्री बर्ड्स लोग खेलते हैं तो कुछ मुश्किल पड़ाव को पार करने के दो तरीके मिलेंगे. एक तो उसे पार करने के लिए कुछ सिक्के या कोई और पावर खरीद लीजिए या फिर कई घंटे उस गेम में उसी लेवल पर उसे पार करने के तरीके ढूंढिए.

ऑनलाइन गेमिंग और ऐप की दुनिया में इसे फ्री-मियम मॉडल कहा जाता है यानि फ्री और प्रीमियम दोनों ऐसे गेम में शामिल हैं. इस तरीके से लोग जो भी गेम काफी पसंद किया जाता है उसे डाउनलोड तो कर लेते हैं और खेलते भी हैं. गेम को कितनी बार डाउनलोड किया गया है, उससे कंपनियों को अपने प्रोडक्ट की सफलता का अंदाज़ हो जाता है.
स्मार्टफ़ोन पर एक बार डाउनलोड हो गया और लोग उसे खेलने लगे तो धीरे-धीरे उसकी आदत सी लग जाती है और जब भी थोड़ा समय मिलता है लोग उसे खेलने लगते हैं.
लोगों से पैसे खर्च करवाने के लिए गेम बनाने वाले एक वर्चुअल करेंसी तैयार कर लेते हैं ताकि लोगों को ये नहीं लगे कि गेम के बीच में कुछ खरीदने के लिए पैसे खर्च कर रहे हैं. लेकिन वर्चुअल करेंसी होने के कारण ऐसा लगेगा नहीं कि आपने जेब से कुछ खरीद की है. लेकिन उस वर्चुअल करेंसी को खरीदने के लिए एक बार पैसे खर्च होते हैं.
उसके बाद भी अगर किसी फीचर को पाने के लिए कोई 100 रुपए खर्च कर रहा है तो आपके वर्चुअल करेंसी के सौ रुपए नहीं मिलेंगे. हो सकता है उसके लिए आपको 765 सिक्के मिलेंगे, जिनका इस्तेमाल करके आप कोई और शक्ति गेम के दौरान खरीद सकते हैं.
इस खरीदारी के लिए एेपल के ऐप स्टोर या गूगल प्ले स्टोर से जो खरीदारी करनी होती है, उसे बहुत आसान बना दिया गया है. इसलिए खरीदारी के समय कोई भी परेशानी नहीं होगी. लेकिन अगर खेलते समय पावर को गंवा दिया तो हो सकता है वो खरीदारी एक बार फिर से करनी पड़े.

गेम डिजाइन करते समय उसे ऐसा बनाया जाता है कि कोई एक बाधा को पार करने में आपको थोड़ी परेशानी हो. जैसे ही एक दो बार आपको परेशानी होगी, वहां पर पैसे खर्च कर के बाधा को पार करना बहुत आसान हो जाता है.
ऐसी खरीदारी करने वाले लोग अकसर पांच फ़ीसद से भी कम होते हैं.ऐसे ही लोग को गेमिंग कंपनियां ढूढती हैं जो पैसे खर्च करके भी गेमिंग चैंपियन बनना चाहते हैं. कभी-कभी विडियो गेम की कमाई का आधा पैसा करीब दो फ़ीसद खेलने वालों की जेब से आता है.
ये आदत युवाओं में ज़्यादा देखी जाती है और चूंकि खर्च करने वाली रकम बहुत बड़ी नहीं होती है, उन्हें भी ये पैसे खर्च करना आसान लगता है. युवाओं में कुछ कर दिखाने की जो बात होती है, गेम बनाने वाले कोशिश करते हैं कि युवा उनकी चुनौती स्वीकार करें.


फ्री गेम खेलने वालों से जो भी डेटा इकठ्ठा होता है, उससे गेम बनाने वाली कंपनियों को नए अपडेट बनाने में मदद मिलती है. कौन से फीचर आपको पसंद हैं, कहां पर सबसे ज़्यादा लोग फंस रहे हैं या कहां पर ज़्यादा लोग गेम को बंद कर देते हैं. इस डेटा से बीच बीच में आने वाले खरीदारी के मौके की कीमतों को कम या ज़्यादा करने में भी मदद मिलती है.
पोकेमॉन गो को सिर्फ चुने हुए देशों में लॉन्च किया गया. ये भी सोची समझी चाल होती है. इससे जो लोग दूसरे देशों में इसे डाउनलोड करना चाहते हैं उनपर नज़र रखके कंपनियों को समझ में आ जाता है कि उनके प्रोडक्ट की मांग कहां बहुत ज़्यादा है.

गेम डेवलपर ये भी जानते हैं कि आप किस देश में हैं या कौन सा स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल कर रहे हैं और कीमतों को ऊपर या नीचे उस हिसाब से भी कर सकते हैं. एंग्री बर्ड्स ने कई प्रोडक्ट के साथ ब्रांडिंग करके भी कुछ पैसे कमाए और फिर बाद में उसी नाम से एक फिल्म भी रिलीज़ की.
अगली बार जब किसी गेम की आपको लत लग जाए तो बस एक बार अपने क्रेडिट कार्ड के बिल के बारे में सोच लीजिएगा





मुंशी प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद


जन्म
प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।
जीवन
धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
शादी
आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, "उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।......." उसके साथ - साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है "पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।" हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।
विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
शिक्षा
अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
साहित्यिक रुचि
गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो - तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।
आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद "तिलस्मे - होशरुबा" पढ़ डाली।
अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी - बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।
तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ - साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी
सन् १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।
यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
व्यक्तित्व
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा "हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् - पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, "तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।" कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं "कि जाड़े के दिनों में चालीस - चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।"
प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
ईश्वर के प्रति आस्था
जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे - धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो - जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"
मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था - "जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।"
प्रेमचन्द की कृतियाँ
प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् १८९४ ई० में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की। सन् १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन् १९०४-०५ में "हम खुर्मा व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।
जब कुछ आर्थिक निर्जिंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।
इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।
"सेवा सदन", "मिल मजदूर" तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए "महाजनी सभ्यता" नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु
सन् १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने "प्रगतिशील लेखक संघ" की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।


सूट-टाई पहनने से करियर को कितना नुक़सान?

सूट-टाई पहनने से करियर को कितना नुक़सान?

कॉरपोरेट सेक्टर में काम करने वाले मर्दों को आपने अक्सर सूट-टाई पहने दफ़्तर जाते देखा होगा.
एक तरह से कॉरपोरेट सेक्टर में काम करने वालों के लिए यह अनौपचारिक रूप से यूनिफॉर्म की तरह समझा जाता है.
लेकिन ब्रिटिश फैशन डिज़ाइनर ओज़वाल्ड बॉटेंग का मानना है कि सूट-टाई पहन कर दफ़्तर जाने से परेशानी पैदा होती है.
ओज़वाल्ड क्लोज़-फिटिंग और रंगीन सूट की डिजाइनिंग के लिए जाने जाते हैं. सूट सिलने के परंपरागत तरीक़े की बजाए आधुनिक तरीक़ा अपनाने की वजह से कई सेलिब्रिटी उनसे सूट सिलवाने वालों की फेहरिस्त में शामिल है.
इस फेहरिस्त में विल स्मिथ और माइक जैगर जैसे सेलिब्रिटी शामिल हैं.
उनका कहना है कि कॉरपोरेट सेक्टर से आने वाले उनके क्लाइंट कहते हैं कि वे बहुत अच्छा नहीं दिखना चाहते हैं.


अगर आप एक टॉप के फैशन डिज़ाइनर से अपनी सूट डिज़ाइन करवा रहे हो तो यह मांग थोड़ी अजीब लगती है.
ओज़वाल्ड कहते हैं, "मैं महसूस करता हूं कि ज्यादातर लोग जो इस तरह की मांग करते हैं उनमें जानकारी की कमी है. कई सीईओ ऐसे हैं जो ख़ुद की एक ताक़तवर छवि नहीं बनाना चाहते हैं."
ओज़वाल्ड मानते हैं कि नौकरी के दौरान उनके व्यवहार में यह संकोच दिखता है. अगर वे अपने पहनावे को लेकर कोई नया प्रयोग नहीं करते हैं तो वे अपनी कंपनी को आगे की ओर नहीं ले जा रहे हैं.
वो कहते हैं, "जब आप एक कंपनी में लीडर की भूमिका में हैं तो आपको वो सब कुछ सुनना और करना पड़ता है जो आपके लिए काम करने वालों को काम पर ध्यान देने में मदद करें. "
सेलिब्रिटी और सुपर मॉडल की दुनिया को छोड़ दे तो निश्चित तौर पर काम करने से ही आपको सफलता मिलनी चाहिए ना कि आप कैसे दिखते हैं?
निश्चित तौर पर इस बात पर आप यक़ीन करना पसंद करेंगे लेकिन हक़ीक़त कुछ और है.
स्विस बैंक यूबीएस के 44 पेजों की ड्रेस कोड जब 2010 में लीक हुई थी तो इसका खूब मज़ाक उड़ाया गया था.
इसमें स्टाफ के अंडरवीयर से लेकर हेयरकट तक के बारे में सलाह दी गई थी कि वे कैसी होनी चाहिए.
ड्रेस कोड की इस गाइड में कहा गया था कि बाहरी तौर पर सुसज्जित तरीक़े से रहने पर कंपनी के मूल्यों के बारे में पता चलता है.
हो सकता है कि यूबीएस ने इस मसले को कुछ ज्यादा ही तवज्जो दे दी हो लेकिन इसके कई सबूत हैं कि कर्मचारियों के पहनावे से फ़र्क पड़ता है.
हर्टफोर्डशायर विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की प्रोफेसर कैरेन पाइन के शोध से पता चलता है कि सिर से पैर तक की आपकी वेश-भूषा के आधार पर सेकंडों में आपके बारे में राय बना ली जाती है और पहली नज़र में पड़ने वाले प्रभाव के मामले में आपके पहनावे का बड़ी भूमिका होती है.
वो कहती है कि उदाहरण के तौर पर जो लोग सिले सिलाए रेडीमेड सूट पहनते हैं उन्हें कम सफ़ल और कम लचीले रूख वाले माने जाते हैं. जबकि वो जो टेलर-मेड सूट पहनते हैं, उन्हें अधिक सफल समझा जाता है.
शोध के परिणामों में फ्रेंच फैशन हाउस के मुख्य अधिकारी सार्ज़ ब्रुंसविग कोई अचरज भरी बात नहीं देखते. उनका मानना है कि आख़िरकार लोग ये याद रखते हैं कि आप कैसे दिखते हैं, ये नहीं कि आपने क्या कहा.
वो कहते हैं, "हम हमेशा कहते हैं कि एक तस्वीर हज़ार शब्दों के बराबर होती है. नेता हज़ारों-हज़ार शब्द बोलते हैं लेकिन उन्हें अपने भाषण को निखारने के लिए अपने कपड़ों पर ध्यान देना चाहिए.
फैशन वेबसाइट वेस्तायर क्लेक्टिव की सह-संस्थापक फैनी मोइज़ैंट का कहना है कि मीटिंग के लिए सही कपड़े का चुनाव उनके आत्मविश्वास को बढ़ाता है.
मर्दों के लिए औरतों की तुलना में विकल्प भले ही कम होते हैं लेकिन मोइजैंट का कहना है कि ख़ुद को बेहतर तरीक़े से अभिव्यक्त करने का सिद्धांत उनपर भी लागू होता है.
बिज़नेस की दुनिया में फ़ेसबुक के संस्थापक मार्क ज़करबर्ग जैसे उदाहरण भी मौजूद हैं जो प्रचलित कॉरपोरेट ड्रेस कोड के उलट तरह-तरह के टी-शर्ट जैसे कपड़े पहनने के लिए जाने जाते हैं.
लेकिन मोइजैंट का कहना है कि ऐसे कुछ लोग अपवाद हैं.



























Thursday 28 July 2016

राष्ट्रपति की कुर्सी से बड़े थे कलाम

राष्ट्रपति की कुर्सी से बड़े थे कलाम




राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दिखाया कि रबर स्टैम्प कहलाने वाला राष्ट्रपति कैसे पूरे देश के मानस पर अमिट छाप छोड़ सकता है.
ऐसा इसलिए कि कलाम राष्ट्रपति के 'जॉब डिस्क्रिप्शन' काफ़ी बड़े थे. डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के बाद शायद ही कोई और राष्ट्रपति होगा जिसका देश के हर हलक़े में इतना सम्मान होगा, राधाकृष्णन का बहुत सम्मान था लेकिन इस तरह जन-जन में नहीं.
कलाम न तो वैज्ञानिक के खाँचे में फिट होते थे, न ही राजनेता के साँचे में, वो जो थे उसे ही विलक्षण कहा जाता है. कोई नहीं दिखता जिससे आप कलाम की तुलना कर सकें.
जो बात समझनी-समझानी मुश्किल हो, उसके लिए मुहावरा है--रॉकेट साइंस, उसी रॉकेट साइंस को कलाम लाखों स्कूली बच्चों तक ले गए. 'चाचा नेहरू' के बाद शायद ही कोई और नेशनल फ़िगर हो जो बच्चों में इतना पॉपुलर रहा हो.
1960 के दशक में मवेशियों के तबेले में लैब बनाने और साइकिल पर रॉकेट ढोने वाले शख़्स की ही विरासत है कि भारत नासा से सैकड़ों गुना सस्ते मंगल अभियान पर गर्व कर रहा है.


तमिलनाडु के तटवर्ती गाँव में मछुआरों को किराये पर नाव देने वाले ज़ैनउलआब्दीन का बेटा जो पूरी तरह देसी-सरकारी शिक्षण संस्थानों में पढ़ा, उसने पश्चिम का तकनीकी ज्ञान अपनाया मगर उसका जीवन-दर्शन पूरी तरह भारतीय रहा.
गीता पढ़ने, रूद्रवीणा बजाने और कविताएँ लिखने वाले शाकाहारी कलाम अपना ज़्यादा समय लाइब्रेरी में बिताते थे या फिर छात्रों के साथ. पारिवारिक झमेलों से दूर उनका जीवन पौराणिक काल के किसी संत-गुरू जैसा था लेकिन सुखोई उड़ाना और सियाचिन जाना उसमें एक अलग आयाम जोड़ता था.
कलाम को पूजने की हद तक चाहने वालों में मिसाइल और परमाणु बम की विनाशक ताक़त पर गर्वोन्मत होने वाले लोग बहुत हैं लेकिन कलाम को 'मिसाइलमैन' कहना उतना ही अटपटा है, जितना बालों की वजह से उन्हें 'रॉकस्टार' कहना.

कलाम को विक्रम साराभाई और सतीश धवन जैसे वैज्ञानिकों ने थुंबा के अंतरिक्ष रिसर्च सेंटर में काम करने के लिए चुना था, जहाँ कलाम ने अंतरिक्ष तक उपग्रह ले जाने वाले देसी रॉकेट विकसित करने वाली टीम की अगुआई की.
यही संस्थान 1971 में साराभाई के निधन के बाद, विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर बन गया जहाँ कलाम ने अपने वैज्ञानिक जीवन के 22 साल रॉकेट साइंस को भारत के लिए संभव बनाने में लगाए.
उन्होंने उस सेटेलाइट लॉन्च व्हीकेल यानी एसएलवी का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा जाँचा-परखा जिसके कामयाब होने के बाद भारत एलीट स्पेस क्लब का मेंबर बन गया, ये सिलसिला यहाँ तक पहुँचा है कि उन्नत कहे जाने वाले देशों के सेटेलाइट भारतीय एसएलवी के ज़रिए अंतरिक्ष में भेजे जा रहे हैं.
रक्षा अनुसंधान में लगे संगठन डीआरडीओ में उनका कार्यकाल छोटा रहा है लेकिन वहाँ भी उन्होंने अहम काम किए. प्रधानमंत्री वाजपेयी के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार के तौर पर उन्होंने पोकरण-2 का नेतृत्व किया लेकिन उनका ज़ोर टेक्नॉलॉजी के ज़रिए ग़रीबों का जीवन बेहतर बनाने पर ही रहा, न कि मिसाइल पर.

कलाम पूरे देश में घूम-घूम कर कहीं रतनजोत की खेती करने, तो कहीं सेटेलाइट डेटा से मछुआरों की मदद करने की सलाह देते रहे.
2002 में जब राष्ट्रपति पद के लिए कलाम का नाम प्रस्तावित किया गया तो विपक्षी कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ उम्मीदवार खड़ा न करने का फ़ैसला किया. सिर्फ़ वामपंथी दलों ने आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल को मैदान में उतारा और ये एकतरफ़ा चुनाव कलाम आसानी से जीत गए.
2002 में कलाम का नाम प्रस्तावित किया जाना एक संयोग नहीं था, तब गुजरात के भीषण दंगों की लपटें ठीक से बुझी भी नहीं थीं. ऐसे में कलाम को उम्मीदवार बनाने को कुछ लोगों ने मुसलमानों के लिए मरहम और कुछ ने भाजपा के सियासी दांव की तरह देखा.
संघ के लोग इसलिए खुश थे कि कलाम गीता पढ़ते हैं. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी एक मुसलमान का विरोध नहीं कर सकती थीं. एक ऐसा 'आदर्श मुसलमान' जिसने देश को 'ताकतवर' बनाया और जिसकी देशभक्ति पर शुबहे की गुंजाइश नहीं थी.
कलाम के जाने के दुख में पूरा देश एक साथ है, हिंदू-मुसलमान सब दुखी हैं, कलाम ने सिखाया अच्छे रहकर बड़ा बनना और बड़े हो जाने पर अच्छा बने रहना. कलाम जिस तरह राष्ट्रपति पद से बड़े थे वैसे ही उनके जाने का दुख भी राष्ट्रीय शोक से ज्यादा गहरा है.
आशंकाएँ जताई गईं कि वे राजनीतिक तौर पर नासमझ साबित होंगे, दूसरे राष्ट्रपतियों के मुक़ाबले उनका कार्यकाल साफ़-सुथरा रहा. एक ही धब्बा है, राज्यपाल बूटा सिंह की सिफ़ारिश पर बिहार में 2005 में राष्ट्रपति शासन लगाने का, बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले को ग़लत करार दे दिया.
कलाम उन राष्ट्रपतियों में थे जिन्होंने पद की नई परिभाषा गढ़ी, अपने सर्वोच्च आसन का भरपूर आनंद लेकर काम करते हुए दिखते थे कलाम. दूसरे कार्यकाल की एक दबी-सी इच्छा शायद उनके मन में थी लेकिन जब उन्हें अंदाज़ा हुआ कि यूपीए सरकार की मंशा कुछ और है तो वे गरिमा के साथ किनारे हो गए.
पहले कार्यकाल के लिए समर्थन देने वाली कांग्रेस के साथ उनका एक मामूली टकराव हुआ था. तब उन्होंने अपने कार्यकाल के अंतिम हिस्से में 'लाभ के पद' संबंधी विधेयक पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था. उसे पुनर्विचार के लिए लौटा दिया था.
साल 2002 में राष्ट्रपति बनते ही उन्होंने अपने थोड़े अटपटे एक्सेंट में 'विज़न 2020' पेश किया था, यानी अगले 18 साल में भारत एक उन्नत देश कैसे बनेगा इसका रोडमैप.
सरकारें बहुत सारे विज़न डाक्युमेंट पेश करती हैं और भूल जाती हैं. कलाम के ट्विटर प्रोफ़ाइल में लिखा था- भारत को 2020 तक एक आर्थिक शक्ति बनाने का सपना पूरा करने के लिए कार्यरत.
कलाम ने अपनी जीवनी विंग्स ऑफ़ फ़ायर में लिखा है कि दो चीज़ें उनमें जोश भरती हैं--विज्ञान और उसे सीखने की चाह रखने वालों का साथ.
उन्होंने जितने बड़े पैमाने पर देश के विज्ञान के छात्रों से मुलाक़ात, बात की है, कभी उनके कैम्पस में जाकर, कभी उन्हें राष्ट्रपति भवन बुलाकर, तो कभी स्काइप के ज़रिए वह गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में दर्ज होने लायक है.
जीवन की अंतिम साँसें लेने से ऐन पहले वे छात्रों से ही बात कर रहे थे, वे ख़ुद भी शायद ऐसी ही मौत चाहते होंगे.

Tuesday 26 July 2016

तोंद निकल आई है, ज़रूर कुछ गड़बड़ है

तोंद निकल आई है, ज़रूर कुछ गड़बड़ है


पेट पर चर्बी बढ़ना या तोंद निकल आना एक ऐसी समस्या है जो ज़िंदगी को ख़तरे में भी डाल सकता है.
ये कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो दिखने में ख़राब मालूम होती हो, बल्कि आपकी सेहत पर ये ख़तरे का संकेत है.
पसलियों के आस-पास त्वचा एक इंच से ज़्यादा खिंचने लगे तो हम इसे बेली फैट या पेट की चर्बी कहते हैं जो ठीक त्वचा के नीचे होती है. इसके अलावा ये हमारे अंदरूनी अंगों, लीवर, पैंक्रियाज़ और आंतों के इर्द-गिर्द भी इकट्ठा होती है.
महत्वपूर्ण अंदरूनी अंगों के आस-पास चर्बी सेहत पर असर डाल सकती है.
हालांकि त्वचा की फैट के मुकाबले आंत पर फैट ज़्यादा तेजी से बनती है और ज़्यादा तेजी से कम भी होती है.
जब वज़न बढ़ता है तो यहां सबसे पहले चर्बी जमा होती है और वज़न कम होने के साथ इसमें भी सबसे पहले कमी आती है.
हालांकि सेहत के लिए यह सबसे ज़्यादा ख़तरनाक़ मानी जाती है लेकिन अच्छी ख़बर ये है कि इसे कम करना ज़्यादा आसान है.
हेल्थ और फिटनेस वेबसाइटों और टीवी विज्ञापनों में चर्बी घटाने के बहुत आसान उपाय बताए जाते हैं. लेकिन ये कितने भरोसेमंद हैं?
इसका जवाब ढूंढने के लिए 'ट्रस्ट मी आईएम ए डॉक्टर' की एक टीम ने एक प्रयोग किया.
हमने 35 ऐसे वॉलंटियरों के चार ग्रुप बनाए, जिनको इतना मोटापा था कि उन्हें टाइप-3 डायबिटीज़ और दिल के रोगों का ख़तरा था.
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी के मेटोबोलिक मेडिसिन के प्रोफ़ेसर फ्रेड्रिक कार्पे और बाथ यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर डायलन थाम्पसन ने दो-दो ग्रुपों पर दो तरीक़े आज़माए.
प्रयोग के पहले हरेक वॉलंटियर की सेहत की जांच की गई, उनकी धड़कन, खून में ग्लूकोज़ और लिपिड की मात्रा, रक्तचाप और कमर की नाप ली गई.
हरेका का डेक्सा स्कैन किया गया है जो शरीर के अंदर फैट की मात्रा को बताता है.
प्रोफ़ेसर थॉम्पसन ने दो ग्रुपों पर दो तरह के व्यायाम का प्रयोग किया. जबकि प्रो कार्पे ने दो ग्रुपों को दो तरह से खुराक लेने का परमार्श दिया.
थॉम्पसन ने पहले ग्रुप के लोगों को सामान्य खुराक लेने को कहा गया और उन्हें दैनिक गतिविधि दर्ज करने के लिए मॉनिटर दिए गए. उन्हें ज़्यादा चलने और सक्रियता बढ़ाने के लिए कुछ टिप्स दिए गए.
जबकि दूसरे ग्रुप को हेल्थ वेबसाइटों के तरीक़े आज़माने को कहा गया.
चर्बी घटाने का व्यायामः
फ़र्श पर लेटकर अपने घुटनों को मोड़ लें, तलवों को फर्श से चिपकाए रखें. अपने दोनों हाथों को अपने कान के पीछे सिर के पीछे रखें. अब अपने घुटनों की ओर मुड़ें. जब फ़र्श से आपके कंधे तीन इंच तक ऊपर उठ जाएं तो कुछ देर के लिए रुकें और फिर धीरे धीरे वापस आएं.
ऊपर मुड़ने के दौरान अपनी ठुड्डी को छाती से न लगाएं.अपनी पसलियों को सिकोड़ें. झटके से अपने सिर को न उठाएं. (स्रोतः एनएचएस च्वाइसेस)
प्रो कार्पे की निगरानी में तीसरे ग्रुप को चर्बी घटाने के एक अन्य लोकप्रिय नुस्खा, एक दिन में तीन ग्लास दूध पीने को कहा गया.
ऐसे शोध आते रहे हैं जिनमें दूध से बनी चीजों को चर्बी घटाने वाला बताया जाता है.
जबकि चौथे ग्रुप के ख़ुराक पर अधिक ध्यान दिया गया. उनसे बस इतना कहा गया कि वो अपने हाथ और अंगुलियों से खाने को नापें.
उन्हें भोजन के बीच में स्नैक्स न खाने को कहा गया. इन्हें भूख के मारे उठने वाले दर्द से निपटने के गुर बताए गए.
छह सप्ताह बाद सभी प्रतिभागियों के सेहत की फिर से जांच की गई.
पहले ग्रुप में पाया गया कि चर्बी तो नहीं घटी लेकिन सेहत में काफ़ी सुधर आया है और एक प्रतिभागी के ख़ून में ग्लूकोज की मात्रा डायबिटिक रेंज से सामान्य तक आ गई.
दूसरे ग्रुप में चर्बी तो घटी और कमर भी 2 सेंटीमीटर कम हुई लेकिन सेहत और वज़न में कोई खास सुधार नहीं दिखा.

दूध पीने वाले तीसरे ग्रुप की सेहत में कोई बदलाव नहीं आया. हालांकि उन्हें 400 कैलोरी अतिरिक्त लेने को कहा गया था, लेकिन उनका वज़न नहीं बढ़ा.
सबसे अधिक सुधार नियंत्रित खुराक लेने वाले चौथे ग्रुप में दिखा. इसमें औसतन प्रति व्यक्ति 3.7 किलो वज़न कम हुआ और कमर औसतन 5 सेंटीमीटर कम हुई.
डेक्सा स्कैन के नतीज़े भी काफी दिलचस्प रहे. शरीर की चर्बी में 5 प्रतिशत कमी आई जबकि अंदरूनी अंगों की चर्बी में 14 प्रतिशत की कमी आई.
इनकी सेहत में भी सुधार आया. हालांकि इससे उनके पैरों की पेशियों के लचीलेपन में कमी आई.
तो, अंत में नतीज़ा ये है कि अगर आप अपने पेट की चर्बी कम करना चाहते हैं तो सदियों पुरानी उसी सलाह को मानना होगा यानी खुराक़ और व्यायाम का सही अनुपात. बाकी चीजों को वहीं छोड़ दें जहां वो हैं.




How to change the URL while Resubmitting Application - Google Adsense Problem

How to change the URL while Resubmitting Application - Google Adsense Problem




Yesterday I announced that I finally got Google Adsense application to get approved and run on my blog after months of trying.

The problem I had was that I applied once with my old blog URL (in the photo below being mereviewing.blogspot.com) using my main Gmail account (we'll call the Gmail account here 
X) and my application didn't get accepted after that I ignored Adsense for sometime during which I deleted my old blog but then I decided to use it on my new blog which you are reading this post on now.


I tried to apply for Google Adsense for my new blog using the same Gmail account X but always got stuck on the screen you see up there, it was very frustrating that I wrote a post about it back then Google Adsense - How I managed to make my first big fat check from Adsense on my blogs?

I tried posting on the support forums but the reply I got wasn't very satisfactory because it meant i will have to use another e-mail every time I want to check my Adsense account.

I finally found a solution to the problem yesterday and finally back on track making money.

X is my main Gmail account that didn't get accepted before and that I want to use
Y is an old hotmail address I don't use anymore

What I did to solve the problem and start making money was:

1. I uploaded a video on YouTube
2. Go to video manager on YouTube and choose to monetize the video.
3. It will take you to Adsense to sign in but at this point Choose create a new Adsense account 
4. Use an old e-mail address to signup (a hotmail address we'll call Y but any other will do as well)
5. Your Adsense account with Y is now Active
6. Go to account settings in your new Adsense account
7.When you scroll till the end of the page you'll find an input box and an invite button...here you need to put your main email address that you will use with adsense and click invite, I put in the old E-mail address I was having the problem with X
8. I received a verification E-mail on my Gmail account X and got it verified.
9. Now you will need to add admin privileges to X so what you need to do is sign out of X 
10. Go to Adsense and sign in with Y 
11. Go to account settings again and scroll to the end of the page
12. This time you'll find X listed there and you can tick a check-box next to it to be admin...go ahead and tick the box.
13. Now we have a valid working Adsense account working with the main E-mail X
14. Go back to Blogger and click on earnings tab
15. Click on switch Adsense account which will take you to sign in to Adsense
16. Sign in with X and you'll find the new URL of your blog in the application
17. proceed with the application and after getting approved Ads will start appearing on your blog

*please note that this will be a hosted Adsense account which means you can't use it on your own domain. In order to use it on your own website you need to submit your website for approval through Adsense.

If you have any comments or questions or need further help please let me know in the comments section below this post.
Please post here if this method worked for you.

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