इस हिंसा का हम पर कोई असर नहीं होता
शुरू में कश्मीर का विवाद संयुक्त राष्ट्र तक पहुँचा, लेकिन शीत युद्ध और उसके बाद सुरक्षा परिषद में विभाजन के चलते इसका कोई हल नहीं निकला. वास्तविकता स्वीकार न कर पाने के चलते तीन दशक पहले कश्मीरी लोगों ने हिंसक विरोध प्रदर्शन शुरू किया.
भारतीय सुरक्षाबलों की भारी भरकम उपस्थिति के बीच कश्मीर की दो पीढ़ी जवान हुई हैं और घाटी के हिंदुओं को बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा.
लेकिन कश्मीरी अलगाववादी हिंसा राज्य के बाहर नहीं पहुँची. इन दशकों में कश्मीरियों ने न तो मुंबई और न दिल्ली में कोई बम धमाका किया और न कोई हमला.
जिन कश्मीरियों ने हथियार उठाए, उन्होंने अपने राज्य में ही भारतीय सुरक्षा बल का विरोध किया. इनको अधिकांश कश्मीरी आतंकवादी नहीं मानते. हालांकि इन्हें देश के दूसरे हिस्सों में आतंकवादी के तौर पर देखा जाता है.
भारत की ओर से कहा जाता है कि इस इलाक़े की समस्या बाहरी है, अगर पाकिस्तान की ओर से शरारत न हो तो यह कोई समस्या नहीं है. हालांकि कश्मीरियों के ख़िलाफ़ चरम हिंसा देखते हुए तो यही लगता है कि हम उन्हें भारतीय के तौर पर नहीं देख पाते हैं.
दूसरा संघर्ष क्षेत्र परंपरागत आदिवासी इलाक़े के संसाधनों के इस्तेमाल से जुड़ा है. जहां प्रचुर मात्रा में खनिज और कोयला मिलता है और भारत सरकार इन संसाधनों का दोहन राष्ट्रीय संपत्ति के नाम पर करना चाहती है.
लेकिन दुर्भाग्य ये है कि जिन आदिवासियों की ज़मीन सरकार ले रही है, उनके साथ निष्पक्षता से बर्ताव नहीं करती. कुछ हद तक कहा जा सकता है ये जानबूझकर नहीं किया जाता.
भारत न तो सक्षम देश है और न संपन्न. सरकार न देश के अधिकांश लोगों और ख़ासकर गरीबों को शिक्षा उपलब्ध करा पा रही है और न स्वास्थ्य सुविधाएं. देश में आदिवासियों की संख्या कुल आबादी की आठ फ़ीसद है और इनकी उपेक्षा कुछ ज़्यादा ही होती है.
यह उनकी ज़मीन से निकला कोयला है जिससे बनने वाली बिजली से शहरों में एयरकंडिशनर और वॉशिंग मशीन चलते हैं. उनके जंगल काटे जा रहे हैं, जिससे प्रदूषण बढ़ रहा है.
अगर दक्षिण मुंबई और दक्षिण दिल्ली में कोयला मिलता तब हमें मानवाधिकार, शोषण और पर्यावरण के बारे में ज़्यादा सुनने को मिलता. लेकिन अधिकार और हक़ की लड़ाई में आदिवासियों का साथ देने वाले नहीं हैं.
शोषण के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को माओवाद और चरम वामपंथी रुझान कहा जा रहा है. ऐसे मुहावरों से शहरी भारतीयों के लिए समस्या की मूल वजह की उपेक्षा कर पाना आसान हो जाता है और वे इन्हें आतंकवादी मानने लगते हैं. चरमपंथी, आतंकवादी, माओवादी, ज़ेहादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल इसी वजह से हम पर थोपा जा चुका है.
कश्मीरी हिंसा की तरह ही, माओवादी हिंसा चेन्नई और कोलकाता तक नहीं पहुँची है. यह आदिवासी क्षेत्रों में सीमित है. हमारे शहरों में कोई बारूदी सुरंग नहीं बिछाई गई है और न कॉरपोरेट दफ़्तरों की घेराबंदी की गई है.
संघर्ष का तीसरा इलाक़ा उत्तर पूर्व है. यह भारत का वो हिस्सा है, जो मुग़लों के अधीन नहीं था. ब्रिटिश लोगों ने जनजातियों को एकजुट किया और इनमें से कई हिस्सों को भारत में शामिल हुए बहुत ज़्यादा दिन नहीं बीते.
इनमें से कुछ जनजातियों ने 1947 से पहले ही एकीकृत होने का विरोध किया था. उन्होंने अपना हिंसक प्रदर्शन जारी रखा. दशकों तक चले उनके संघर्ष को भारतीय सेना ने दबा दिया है. भारतीय सेना की इन इलाक़ों में काफ़ी उपस्थिति है. यहां भी उत्तर पूर्व के विद्रोही अपना संघर्ष बंगलुरु में नहीं कर रहे हैं और न हैदराबाद में. न तो एयरपोर्ट पर हमले हो रहे हैं और न हमारे स्कूल बंधक बनाए जा रहे हैं.
कश्मीर और उत्तर पूर्व भारत के लाखों युवा, अपने काम के सिलसिले में भारत के विभिन्न शहरों में रहते हैं. वे तब समाचारों में आते हैं, जब उन्हें किराए पर घर नहीं मिलता या फिर उनकी नस्ल के चलते उन पर हमले होते हैं. वे अपनी ज़मीन के संघर्ष को पीछे छोड़ चुके हैं. उनके लिए यह ऐसा है जैसे ये हत्याएं और शोषण किसी और के देश में हो रहे हैं.
मुख्य बात ये है कि भारत का मध्यवर्ग इन तीन संघर्षों की उपेक्षा करता है. हिंसा का हम पर कोई असर नहीं होता और हम आसानी से समस्या की वजह और उनके दुखों से मुँह मोड़ लेते हैं.
हम अपनी बैठकों से लेकर टेलीविजन स्टूडियो में इन सबको आतंकवाद कहते हैं. हम इससे दूरी बरत सकते हैं और ख़ुशकिस्मत हैं कि ऐसा कर सकते हैं. इससे सरकार जैसा चाहती है वैसा करने की छूट मिल जाती है. वह इन लोगों के साथ जितनी कठोरता चाहे, उतनी कठोरता बरत सकती है, क्योंकि इससे दूसरों के हित प्रभावित नहीं होते.
भारत में मोटे तौर पर तीन बड़े संघर्ष
क्षेत्र हैं. एक तो जम्मू कश्मीर है. दूसरा क्षेत्र मध्य भारत का आदिवासी
इलाक़ा है जो झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ से सटा है. तीसरा इलाक़ा, उत्तर
पूर्व भारतीय जनजातीय समुदाय का इलाक़ा है.
पहला इलाक़ा जम्मू कश्मीर
है, जहां कश्मीर घाटी के मुसलमानों को लगता है कि विभाजन के वक़्त उनकी
कोई राय नहीं ली गई. तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जनमत संग्रह
कराने का वादा किया था. वहां के लोग यही चाहते थे, जिसे बाद में वापस ले
लिया गया. बाद में जम्मू कश्मीर को भारतीय संघ के साथ जिन प्रावधानों के
साथ लिया गया, उसे कश्मीरी लोगों ने वैध नहीं माना.शुरू में कश्मीर का विवाद संयुक्त राष्ट्र तक पहुँचा, लेकिन शीत युद्ध और उसके बाद सुरक्षा परिषद में विभाजन के चलते इसका कोई हल नहीं निकला. वास्तविकता स्वीकार न कर पाने के चलते तीन दशक पहले कश्मीरी लोगों ने हिंसक विरोध प्रदर्शन शुरू किया.
भारतीय सुरक्षाबलों की भारी भरकम उपस्थिति के बीच कश्मीर की दो पीढ़ी जवान हुई हैं और घाटी के हिंदुओं को बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ा.
लेकिन कश्मीरी अलगाववादी हिंसा राज्य के बाहर नहीं पहुँची. इन दशकों में कश्मीरियों ने न तो मुंबई और न दिल्ली में कोई बम धमाका किया और न कोई हमला.
जिन कश्मीरियों ने हथियार उठाए, उन्होंने अपने राज्य में ही भारतीय सुरक्षा बल का विरोध किया. इनको अधिकांश कश्मीरी आतंकवादी नहीं मानते. हालांकि इन्हें देश के दूसरे हिस्सों में आतंकवादी के तौर पर देखा जाता है.
भारत की ओर से कहा जाता है कि इस इलाक़े की समस्या बाहरी है, अगर पाकिस्तान की ओर से शरारत न हो तो यह कोई समस्या नहीं है. हालांकि कश्मीरियों के ख़िलाफ़ चरम हिंसा देखते हुए तो यही लगता है कि हम उन्हें भारतीय के तौर पर नहीं देख पाते हैं.
दूसरा संघर्ष क्षेत्र परंपरागत आदिवासी इलाक़े के संसाधनों के इस्तेमाल से जुड़ा है. जहां प्रचुर मात्रा में खनिज और कोयला मिलता है और भारत सरकार इन संसाधनों का दोहन राष्ट्रीय संपत्ति के नाम पर करना चाहती है.
लेकिन दुर्भाग्य ये है कि जिन आदिवासियों की ज़मीन सरकार ले रही है, उनके साथ निष्पक्षता से बर्ताव नहीं करती. कुछ हद तक कहा जा सकता है ये जानबूझकर नहीं किया जाता.
भारत न तो सक्षम देश है और न संपन्न. सरकार न देश के अधिकांश लोगों और ख़ासकर गरीबों को शिक्षा उपलब्ध करा पा रही है और न स्वास्थ्य सुविधाएं. देश में आदिवासियों की संख्या कुल आबादी की आठ फ़ीसद है और इनकी उपेक्षा कुछ ज़्यादा ही होती है.
यह उनकी ज़मीन से निकला कोयला है जिससे बनने वाली बिजली से शहरों में एयरकंडिशनर और वॉशिंग मशीन चलते हैं. उनके जंगल काटे जा रहे हैं, जिससे प्रदूषण बढ़ रहा है.
अगर दक्षिण मुंबई और दक्षिण दिल्ली में कोयला मिलता तब हमें मानवाधिकार, शोषण और पर्यावरण के बारे में ज़्यादा सुनने को मिलता. लेकिन अधिकार और हक़ की लड़ाई में आदिवासियों का साथ देने वाले नहीं हैं.
शोषण के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को माओवाद और चरम वामपंथी रुझान कहा जा रहा है. ऐसे मुहावरों से शहरी भारतीयों के लिए समस्या की मूल वजह की उपेक्षा कर पाना आसान हो जाता है और वे इन्हें आतंकवादी मानने लगते हैं. चरमपंथी, आतंकवादी, माओवादी, ज़ेहादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल इसी वजह से हम पर थोपा जा चुका है.
कश्मीरी हिंसा की तरह ही, माओवादी हिंसा चेन्नई और कोलकाता तक नहीं पहुँची है. यह आदिवासी क्षेत्रों में सीमित है. हमारे शहरों में कोई बारूदी सुरंग नहीं बिछाई गई है और न कॉरपोरेट दफ़्तरों की घेराबंदी की गई है.
संघर्ष का तीसरा इलाक़ा उत्तर पूर्व है. यह भारत का वो हिस्सा है, जो मुग़लों के अधीन नहीं था. ब्रिटिश लोगों ने जनजातियों को एकजुट किया और इनमें से कई हिस्सों को भारत में शामिल हुए बहुत ज़्यादा दिन नहीं बीते.
इनमें से कुछ जनजातियों ने 1947 से पहले ही एकीकृत होने का विरोध किया था. उन्होंने अपना हिंसक प्रदर्शन जारी रखा. दशकों तक चले उनके संघर्ष को भारतीय सेना ने दबा दिया है. भारतीय सेना की इन इलाक़ों में काफ़ी उपस्थिति है. यहां भी उत्तर पूर्व के विद्रोही अपना संघर्ष बंगलुरु में नहीं कर रहे हैं और न हैदराबाद में. न तो एयरपोर्ट पर हमले हो रहे हैं और न हमारे स्कूल बंधक बनाए जा रहे हैं.
कश्मीर और उत्तर पूर्व भारत के लाखों युवा, अपने काम के सिलसिले में भारत के विभिन्न शहरों में रहते हैं. वे तब समाचारों में आते हैं, जब उन्हें किराए पर घर नहीं मिलता या फिर उनकी नस्ल के चलते उन पर हमले होते हैं. वे अपनी ज़मीन के संघर्ष को पीछे छोड़ चुके हैं. उनके लिए यह ऐसा है जैसे ये हत्याएं और शोषण किसी और के देश में हो रहे हैं.
मुख्य बात ये है कि भारत का मध्यवर्ग इन तीन संघर्षों की उपेक्षा करता है. हिंसा का हम पर कोई असर नहीं होता और हम आसानी से समस्या की वजह और उनके दुखों से मुँह मोड़ लेते हैं.
हम अपनी बैठकों से लेकर टेलीविजन स्टूडियो में इन सबको आतंकवाद कहते हैं. हम इससे दूरी बरत सकते हैं और ख़ुशकिस्मत हैं कि ऐसा कर सकते हैं. इससे सरकार जैसा चाहती है वैसा करने की छूट मिल जाती है. वह इन लोगों के साथ जितनी कठोरता चाहे, उतनी कठोरता बरत सकती है, क्योंकि इससे दूसरों के हित प्रभावित नहीं होते.
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